आचार्य बताते हैं कि संतान, पत्नी, पिता व मित्र केवल रिश्ते नहीं होते हैं। केवल फेरे लेने से भर से कोई स्त्री पत्नी नहीं बन जाती है। मां के गर्भ से जन्म लेने भर से कोई संतान नहीं होती और मित्र कहने भर से कोई मित्र नहीं बन जाता है।
चाणक्य कहते हैं कि पुत्र उन्हें ही कहा जा सकता है जो पिता के भक्त होते हैं। पिता भी वही हैं जो पुत्रों का पालन-पोषण करते हैं।
इसी प्रकार मित्र भी वही है जिस पर विश्वास किया जा सकता है और पत्नी भी वही है जिससे सुख की प्राप्ति होती है।
चाणक्य कहते हैं कि वहीं गृहस्थ सुखी है, जिसकी संतान उसके वश में है और उसकी आज्ञा का पालन करती है।
अगर संतान पिता की आज्ञा का पालन नहीं करती तो घर में क्लेश और दुख पैदा होता है।
चाणक्य के अनुसार पिता का भी कर्तव्य है कि वह अपनी संतान का पालन-पोषण भली प्रकार से करे।
जिसने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया हो, उसे पुत्र से भी भक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए।
प्रकार मित्र के विषय में चाणक्य का मत है ऐसे व्यक्ति को मित्र कैसे कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
और ऐसी पत्नी किस काम की, जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो और हमेशा क्लेश करके घर में अशांति फैलाती हो।