Swami Vivekanand Ka Jivan Parichay: स्वामी विवेकानंद ने एक महापुरुष और एक युवा साधु के रूप में अपनी पहचान बनाई। उन्होंने मानव सहित युवाओं को एक नई राह दिखाई।
हिंदू धर्म के प्रवर्तक, वेदों के ज्ञाता, अध्यात्म से परिपूर्ण स्वामी विवेकानंद ने अपने महान और अमूल्य विचारों और आध्यात्मिक ज्ञान से सभी मनुष्यों और विशेष रूप से युवाओं को एक नई राय दिखाई है। यही वजह है कि उन्हें युवाओं का प्रेरणास्रोत कहा जाता है और हर साल विवेकानंद की जयंती यानी 12 जनवरी को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
स्वामी विवेकानंद महान पथ प्रदर्शक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने भारत की सभ्यता, धर्म और संस्कृति को पूरी दुनिया से परिचित कराया। आज भी उनके महान विचार और मूल मंत्र युवाओं को देश और समाज की दशा सुधारने और बदलाव लाने के लिए प्रेरित करते हैं। तो आइए जानते हैं स्वामी विवेकानंद के बारे में (About Swami Vivekananda In Hindi Biography) –
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय इन हिंदी में (Swami Vivekananda Biography In Hindi)
- असली नाम – नरेन्द्रनाथ दत्त
- घर का नाम – नरेन्द्र और नरेन
- बाद का नाम – स्वामी विवेकानंद
- प्रसिद्ध नाम – स्वामी विवेकानंद
- पिता का नाम – विश्वनाथ दत्त
- माता का नाम – भुवनेश्वरी देवी
- गुरु का नाम – रामकृष्ण परमहंस
- जन्म स्थान – कलकत्ता, भारत
- जन्म दिनांक – 12 जनवरी, 1863
- मृत्यु – 4 जुलाई, 1902
- भाई, बहन – 9
स्वामी विवेकानंद का जन्म और मृत्यु कब हुई थी (Swami Vivekananda In Hindi Biography)
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को, जबकि मृत्यु 4 जुलाई, 1902 को हुई थी। स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र दत्त, पिता विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। नरेंद्र एक पारंपरिक बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके कुल 9 भाई -बहन थे।
स्वामी विवेकानंद के बारे में (Swami Vivekananda In Hindi Information)
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। स्वामी विवेकानंद के घर का नाम नरेंद्र दत्त था और उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास करते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी इंग्लिश पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता की तर्ज पर चलाना चाहते थे। नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) की बुद्धि बचपन से ही बड़ी कुशाग्र थी और ईश्वर को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इसके लिए स्वामी विवेकानंद पहले ब्रह्म समाज में गए पर वहां उनके मन को संतोष नहीं हुआ।
1884 में उनके पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर आ गया। घर के हालात बहुत खराब थे और नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) शादी भी नहीं हुई थी। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र एक महान अतिथि-सेवक थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते थे, स्वयं भीगकर रात भर बाहर वर्षा में पड़े रहते थे और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते थे।
रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र पहले तो उनके पास बहस करने के विचार से गए, लेकिन परमहंस जी को देखते ही उन्होंने पहचान लिया कि यह वही शिष्य है जिसकी वे कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे। परमहंस जी की कृपा से उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ, फलस्वरूप नरेन्द्र परमहंस जी के शिष्यों में प्रमुख हो गये। संन्यास के बाद उनका नाम विवेकानंद हो गया।
स्वामी विवेकानंद ने अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया था। गुरुदेव की मृत्यु के दिनों में घर और परिवार की नाजुक स्थिति की परवाह किए बिना, अपने भोजन की परवाह किए बिना, वे लगातार गुरु की सेवा में उपस्थित रहते थे। गुरुदेव का शरीर बहुत बीमार हो गया था। कैंसर होने पर गले से बलगम, खून, कफ आदि निकलता था। वह इन सभी को बहुत सावधानी से साफ करते थे।
एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में द्वेष और लापरवाही दिखाई। यह देखकर विवेकानंद को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को सबक सिखाते हुए और गुरुदेव की हर बात पर अपना प्यार जताते हुए उन्होंने बिस्तर के पास खून, कफ आदि से भरा एक चम्मच उठाया और पी लिया।
25 वर्ष की आयु में नरेन्द्र दत्त ने भगवा वस्त्र धारण किया। इसके बाद उन्होंने पूरे भारत की पैदल यात्रा की। 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद का आयोजन हो रहा था। स्वामी विवेकानंदजी भारत के प्रतिनिधि के रूप में वहां पहुंचे। उस समय यूरोप और अमेरिका के लोग पराधीन भारतीयों को बड़ी हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत कोशिश की कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयासों से उन्हें कुछ समय तो मिला, पर उनके विचार को सुनकर सभी विद्वान हैरान रह गए।
फिर अमेरिका में उनका खूब स्वागत हुआ था। उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय वंहा हो गया, वे तीन वर्ष अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय दर्शन का अद्भुत प्रकाश प्रदान करते रहे।
‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना दुनिया अनाथ हो जाएगी’, यह स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था। उन्होंने अमेरिका में रामकृष्ण मिशन की कई शाखाओं की स्थापना की। अमेरिका के अनेक विद्वानों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। वे हमेशा अपने को गरीबों का सेवक बताते थे। उन्होंने सदैव भारत का गौरव देश-विदेश में रोशन करने का प्रयास किया। 4 जुलाई, 1902 को उन्होंने शरीर त्याग दिया।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा दीक्षा इन हिंदी (Swami Vivekananda Education In Hindi)
1871 में जब नरेंद्र आठ साल के थे, तब उन्हें ईश्वर चंद्र विद्यासागर के महानगरीय संस्थान (Ishwar Chandra Vidyasagar’s Metropolitan Institute) में प्रवेश दिलाया गया और उन्होंने 1877 तक वही शिक्षा ग्रहण की। 1877 से 1879 तक, वे और उनका परिवार रायपुर में रहे और 1879 में कलकत्ता लौट आए। 1879 में, नरेंद्र ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। एक साल बाद, उन्होंने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना शुरू किया। यहां उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय देशों के इतिहास के बारे में सीखा।
नरेंद्र विभिन्न विषयों को पढ़ते थे, जिनमें धर्म, दर्शन, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य इत्यादि शामिल थे। इसके अलावा, उन्हें हिंदू धार्मिक ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों में भी काफी रुचि थी। और इन्हें पढ़कर वह अपनी जिज्ञासा को शांत करते थे। 1884 में, नरेंद्र ने कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की। नरेन्द्र की अद्भुत स्मृति के कारण कुछ लोग उन्हें ‘श्रुतिधर’ भी कहते थे। नरेंद्र की बढ़ती उम्र के साथ उनका ज्ञान तो बढ़ता ही जा रहा था, लेकिन उनके तर्क भी असरदार होते जा रहे थे। उनके मन में ईश्वर का अस्तित्व और भी गहरा हो गया।