आचार्य चाणक्य के अनुसार, जैसे अभ्यास के बिना शास्त्र विष के सामन होता है, भोजन के पूरी तरह से पचे बिना फिर से भोजन करना विष के समान होता है।
निर्धन और दरिद्र के लिए समाज में रहना विष के समान होता है उसी प्रकार बूढ़े पुरुष के लिए युवति विष के समान होती है।
आचार्य चाणक्य कहते है कि मनुष्यों को निरंतर अभ्यास द्वारा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
आचार्य चाणक्य कहते है कि मनुष्यों को निरंतर अभ्यास द्वारा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
अगर वह निरंतर अभ्यास नहीं करता तो अधकचरा अज्ञानी बनता है और ऐसा ज्ञान विष के समान दुखदायी होती है।
इसी प्रकार पेट में अपच की स्थिति में अच्छा भोजन भी विष के समान कष्ट देता है।
वहीं, दरिद्र कि किसी सभा अथवा समाज में पूछ नहीं होती उसे खून का घूंट पीना पड़ता है।
चाणक्य कहते हैं कि बूढ़ा आदमी यदि तरुणी के साथ विवाह करता है तो उसका जीवन अत्यन्त कष्टमय हो जाता है।
क्योंकि विचारों में असमानता सदैव कलेश का कारण बनती है और शारीरिक रूप से निर्बल होने के कारण वह नवयोवन को यौन संतुष्टि भी प्रदान नहीं कर सकता।
ऐसी पत्नी पथभ्रष्ट हो सकती है, जो कि सम्मानित व्यक्ति के लिए विष के सामान कष्टदायी होता है।